Monday, August 22, 2022

पाँचवीं पुतली - लीलावती ~ विक्रमादित्य की दानवीरता

पाँचवीं पुतली - लीलावती ने भी राजा भोज को विक्रमादित्य के बारे में जो कुछ सुनाया उससे उनकी दानवीरता ही झलकती थी। कथा इस प्रकार थी-

हमेशा की तरह एक दिन विक्रमादित्य अपने दरबार में राजकाज निबटा रहे थे तभी एक ब्राह्मण दरबार में आकर उनसे मिला। उसने उन्हें बताया कि उनके राज्य की जनता खुशहाल हो जाएगी और उनकी भी कीर्ति चारों तरफ फैल जाएगी, अगर वे तुला लग्न में अपने लिए कोई महल बनवाएँ। विक्रम को उसकी बात जँच गई और उन्होंने एक बड़े ही भव्य महल का निर्माण करवाया। कारीगरों ने उसे राजा के निर्देश पर सोने-चाँदी, हीरे-जवाहरात और मणि-मोतियों से पूरी तरह सजा दिया। महल जब बनकर तैयार हुआ तो उसकी भव्यता देखते बनती थी। विक्रम अपने सगे-सम्बन्धियों तथा नौकर-चाकरों के साथ उसे देखने गए। उनके साथ वह ब्राह्मण भी था। विक्रम तो जो मंत्रमुग्ध हुए, वह ब्राह्मण मुँह खोले देखता ही रह गया। बिना सोचे उसके मुँह से निकला-"काश, इस महल का मालिक मैं होता!" विक्रमादित्य ने उसकी इच्छा जानते ही झट वह भव्य महल उसे दान में दे दिया।

ब्राह्मण के तो मानो पाँव ही ज़मीन पर नहीं पड़ रहे थे। वह भागता हुआ अपनी पत्नी को यह समाचार सुनाने पहुँचा। इधर ब्राह्मणी उसे खाली हाथ आते देख कुछ बोलती उससे पहले ही उसने उसे हीरे-जवाहरात और मणि-मुक्ताओं से जड़े हुए महल को दान में प्राप्त करने की बात बता दी। ब्राह्मण की पत्नी की तो खुशी की सीमा न रही। उसे एकबारगी लगा मानो उसका पति पागल हो गया और यों ही अनाप-शनाप बक रहा हों, मगर उसके बार-बार कहने पर वह उसके साथ महल देखने के लिए चलने को तैयार हो गई। महल की शोभा देखकर उसकी आँखे खुली रह गईं। महक का कोना-कोना देखते-देखते कब शाम हो गई उन्हें पता ही नहीं चला। थके-माँदे वे एक शयन-कक्ष में जाकर निढाल हो गए। अर्ध रात्रि में उनकी आँखे किसी आवाज़ से खुल गई।

सारे महल में खुशबू फैली थी और सारा महक प्रकाश मान था। उन्होंने ध्यान से सुना तो लक्ष्मी बोल रही थी। वह कह रही थी कि उनके भाग्य से वह यहाँ आई है और उनकी कोई भी इच्छा पूरी करने को तैयार है। ब्राह्मण दम्पति का डर के मारे बुरा हाल हो गया। ब्राह्मणी तो बेहोश ही हो गई। लक्ष्मी ने तीन बार अपनी बात दुहराई। लेकिन ब्राह्मण ने कुछ नहीं मांगा तो क्रुद्ध होकर चली गई। उसके जाते ही प्रकाश तथा खुशबू- दोनों गायब। काफी देर बाद ब्राह्मणी को होश आया तो उसने कहा- "यह महल ज़रुर भुतहा है, इसलिए दान में मिला। इससे अच्छा तो हमारा टूटा-फूटा घर है जहाँ चैन की नींद सो सकते हैं। ब्राह्मण को पत्नी की बात जँच गई। सहमे-सहमे बाकी रात काटकर तड़के ही उन्होंने अपना सामान समेटा और पुरानी कुटिया को लौट आए। ब्राह्मण अपने घर से सीधा राजभवन आया और विक्रमादित्य से अनुरोध करने लगा कि वे अपना महल वापस ले लें। पर दान दी गई वस्तु को वे कैसे ग्रहण कर लेते। काफी सोचने के बाद उन्होंने महल का उचित मूल्य लगाकर उसे ख़रीद लिया। ब्राह्मण खुशी-खुशी अपने घर लौट गया।

ब्राह्मण से महल खरीदने के बाद राजा विक्रमादित्य उसमें आकर रहने लगे। वहीं अब दरबार भी लगता था। एक दिन वे सोए हुए थे तो लक्ष्मी फिर आई। जब लक्ष्मी ने उनसे कुछ भी मांगने को कहा तो वे बोले- "आपकी कृपा से मेरे पास सब कुछ है। फिर भी आप अगर देना ही चाहती हैं तो मेरे पूरे राज्य में धन की वर्षा कर दें और मेरी प्रजा को किसी चीज़ की कमी न रहने दें।

सुबह उठकर उन्हें पता चला कि सारे राज्य में धन वर्षा हुई है और लोग वर्षा वाला धन राजा को सौंप देना चाहते हैं। विक्रमादित्य ने आदेश किया कि कोई भी किसी अन्य के हिस्से का धना नहीं समेटेगा और अपने हिस्से का धन अपनी सम्पत्ति मानेगा। जनता जय-जय कार कर उठी।

  KOO-https://www.kooapp.com/profile/siddhantsingh643

 Facebook:https://www.facebook.com/yedilkibathai


Monday, August 08, 2022

चौथी पुतली कामकंदला ~ विक्रमादित्य की दानवीरता तथा त्याग की भावना

 चौथी पुतली कामकंदला की कथा से भी विक्रमादित्य की दानवीरता तथा त्याग की भावना का पता चलता है। वह इस प्रकार है-


एक दिन राजा विक्रमादित्य दरबार को सम्बोधित कर रहे थे तभी किसी ने सूचना दी कि एक ब्राह्मण उनसे मिलना चाहता है। विक्रमादित्य ने कहा कि ब्राह्मण को अन्दर लाया जाए। जब ब्राह्मण उनसे मिला तो विक्रम ने उसके आने का प्रयोजन पूछा। ब्राह्मण ने कहा कि वह किसी दान की इच्छा से नहीं आया हैबल्कि उन्हें कुछ बतलाने आया है। उसने बतलाया कि मानसरोवर में सूर्योदय होते ही एक खम्भा प्रकट होता है जो सूर्य का प्रकाश ज्यों-ज्यों फैलता है ऊपर उठता चला जाता है और जब सूर्य की गर्मी अपनी पराकाष्ठा पर होती है तो सूर्य को स्पर्श करता है। ज्यों-ज्यों सूर्य की गर्मी घटती है छोटा होता जाता है तथा सूर्यास्त होते ही जल में विलीन हो जाता है। विक्रम के मन में जिज्ञासा हुई कि ब्राह्मण का इससे अभिप्राय क्या है। ब्राह्मण उनकी जिज्ञासा को भाँप गया और उसने बतलाया कि भगवान इन्द्र का दूत बनकर वह आया है ताकि उनके आत्मविश्वास की रक्षा विक्रम कर सकें। उसने कहा कि सूर्य देवता को घमण्ड है कि समुद्र देवता को छोड़कर पूरे ब्रह्माण्ड में कोई भी उनकी गर्मी को सहन नहीं कर सकता।

देवराज इन्द्र उनकी इस बात से सहमत नहीं हैं। उनका मानना हे कि उनकी अनुकम्पा प्राप्त मृत्युलोक का एक राजा सूर्य की गर्मी की परवाह न करके उनके निकट जा सकता है। वह राजा आप हैं। राजा विक्रमादित्य को अब सारी बात समझ में आ गई। उन्होंने सोच लिया कि प्राणोत्सर्ग करके भी सूर्य भगवान को समीप से जाकर नमस्कार करेंगे तथा देवराज के आत्मविश्वास की रक्षा करेंगे। उन्होंने ब्राह्मण को समुचित दान-दक्षिणा देकर विदा किया तथा अपनी योजना को कार्य-रुप देने का उपाय सोचने लगे। उन्हें इस बात की खुशी थी कि देवतागण भी उन्हें योग्य समझते हैं। भोर होने पर दूसरे दिन वे अपना राज्य छोड़कर चल पड़े। एकान्त में उन्होंने माँ काली द्वारा प्रदत्त दोनों बेतालों का स्मरण किया। दोनों बेताल तत्क्षण उपस्थित हो गए।

विक्रम को उन्होंने बताया कि उन्हें उस खम्भे के बारे में सब कुछ पता है। दोनों बेताल उन्हें मानसरोवर के तट पर लाए। रात उन्होंने हरियाली से भरी जगह पर काटी और भोर होते ही उस जगह पर नज़र टिका दी जहाँ से खम्भा प्रकट होता। सूर्य की किरणों ने ज्योंहि मानसरोवर के जल को छुआ कि एक खम्भा प्रकट हुआ। विक्रम तुरन्त तैरकर उस खम्भे तक पहुँचे। खम्भे पर ज्योंहि विक्रम चढ़े जल में हलचल हुई और लहरें उठकर विक्रम के पाँव छूने लगीं। ज्यों-ज्यों सूर्य की गर्मी बढीखम्भा बढ़ता रहा। दोपहर आते-आते खम्भा सूर्य के बिल्कुल करीब आ गया। तब तक विक्रम का शरीर जलकर बिल्कुल राख हो गया था। सूर्य भगवान ने जब खम्भे पर एक मानव को जला हुआ पाया तो उन्हें समझते देर नहीं लगी कि विक्रम को छोड़कर कोई दूसरा नहीं होगा। उन्होंने भगवान इन्द्र के दावे को बिल्कुल सच पाया।

उन्होंने अमृत की बून्दों से विक्रम को जीवित किया तथा अपने स्वर्ण कुण्डल उतारकर उन्हें भेंट कर दिए। उन कुण्डलों की विशेषता थी कि कोई भी इच्छित वस्तु वे कभी भी प्रदान कर देते। सूर्य देव ने अपना रथ अस्ताचल की दिशा में बढ़ाया तो खम्भा घटने लगा। सूर्यास्त होते ही खम्भा पूरी तरह घट गया और विक्रम जल पर तैरने लगे। तैरकर सरोवर के किनारे आए और दोनों बेतालों का स्मरण किया। बेताल उन्हें फिर उसी जगह लाए जहाँ से उन्हें सरोवर ले गए थे। विक्रम पैदल अपने महल की दिशा में चल पड़े। कुछ ही दूर पर एक ब्राह्मण मिला जिसने उनसे वे कुण्डल मांग लिए। विक्रम ने बेहिचक उसे दोनों कुण्डल दे दिए। उन्हें बिल्कुल मलाल नहीं हुआ।

Wednesday, August 03, 2022

तीसरी पुतली चन्द्रकला ~ पुरुषार्थ और भाग्य में कौन बड़ा!

 तीसरी पुतली चन्द्रकला ने जो कथा सुनाई वह इस प्रकार है।


एक बार पुरुषार्थ और भाग्य में इस बात पर ठन गई कि कौन बड़ा है। पुरुषार्थ कहता कि बगैर मेहनत के कुछ भी सम्भव नहीं है जबकि भाग्य का मानना था कि जिसको जो भी मिलता है भाग्य से मिलता है परिश्रम की कोई भूमिका नहीं होती है। उनके विवाद ने ऐसा उग्र रुप ग्रहण कर लिया कि दोनों को देवराज इन्द्र के पास जाना पड़ा। झगड़ा बहुत ही पेचीदा था इसलिए इन्द्र भी चकरा गए। पुरुषार्थ को वे नहीं मानते जिन्हें भाग्य से ही सब कुछ प्राप्त हो चुका था। दूसरी तरफ अगर भाग्य को बड़ा बताते तो पुरुषार्थ उनका उदाहरण प्रस्तुत करता जिन्होंने मेहनत से सब कुछ अर्जित किया था। असमंजस में पड़ गए और किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँचे। काफी सोचने के बाद उन्हें विक्रमादित्य की याद आई। उन्हें लगा सारे विश्व में इस झगड़े का समाधान सिर्फ वही कर सकते है।
उन्होंने पुरुषार्थ और भाग्य को विक्रमादित्य के पास जाने के लिए कहा। पुरुषार्थ और भाग्य मानव भेष में विक्रम के पास चल पड़े। विक्रम के पास आकर उन्होंने अपने झगड़े की बात रखी। विक्रमादित्य को भी तुरन्त कोई समाधान नहीं सूझा। उन्होंने दोनों से छ: महीने की मोहलत मांगी और उनसे छ: महीने के बाद आने को कहा। जब वे चले गए तो विक्रमादित्य ने काफी सोचा। किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँच सके तो उन्होंने सामान्य जनता के बीच भेष बदलकर घूमना शुरु किया। काफी घूमने के बाद भी जब कोई संतोषजनक हल नहीं खोज पाए तो दूसरे राज्यों में भी घूमने का निर्णय किया। काफी भटकने के बाद भी जब कोई समाधान नहीं निकला तो उन्होंने एक व्यापारी के यहाँ नौकरी कर ली। व्यापारी ने उन्हें नौकरी उनके यह कहने पर दी जो काम दूसरे नहीं कर सकते हैं वे कर देंगे, दी।

कुछ दिनों बाद वह व्यापारी जहाज पर अपना माल लादकर दूसरे देशों में व्यापार करने के लिए समुद्री रास्ते से चल पड़ा। अन्य नौकरों के अलावा उसके साथ विक्रमादित्य भी थे। जहाज कुछ ही दूर गया होगा कि भयानक तूफान आ गया। जहाज पर सवार लोगों में भय और हताशा की लहर दौड़ गई। किसी तरह जहाज एक टापू के पास आया और वहाँ लंगर डाल दिया गया। जब तूफान समाप्त हुआ तो लंगर उठाया जाने लगा। मगर लंगर किसी के उठाए न उठा। अब व्यापारी को याद आया कि विक्रमादित्य ने यह कहकर नौकरी ली थी कि जो कोई न कर सकेगा वे कर देंगे। उसने विक्रम से लंगर उठाने को कहा। लंगर उनसे आसानी से उठ गया। लंगर उठते ही जहाज ऐसी गति से बढ़ गया कि टापू पर विक्रम छूट गए।

उनकी समझ में नहीं आया क्या किया जाए। द्वीप पर घूमने-फिरने चल पड़े। नगर के द्वार पर एक पट्टिका टंगी थी जिस पर लिखा था कि वहाँ की राजकुमारी का विवाह विक्रमादित्य से होगा। वे चलते-चलते महल तक पहुँचे। राजकुमारी उनका परिचय पाकर खुश हुई और दोनों का विवाह हो गया। कुछ समय बाद वे कुछ सेवकों को साथ ले अपने राज्य की ओर चल पड़े। रास्ते में विश्राम के लिए जहाँ डेरा डाला वहीं एक सन्यासी से उनकी भेंट हुई। सन्यासी ने उन्हें एक माला और एक छड़ी दी। उस माला की दो विशेषताएँ थीं- उसे पहननेवाला अदृश्य होकर सब कुछ देख सकता था तथा गले में माला रहने पर उसका हर कार्य सिद्ध हो जाता। छड़ी से उसका मालिक सोने के पूर्व कोई भी आभूषण मांग सकता था।

सन्यासी को धन्यवाद देकर विक्रम अपने राज्य लौटे। एक उद्यान में ठहरकर संग आए सेवकों को वापस भेज दिया तथा अपनी पत्नी को संदेश भिजवाया कि शीघ्र ही वे उसे अपने राज्य बुलवा लेंगे। उद्यान में ही उनकी भेंट एक ब्राह्मण और एक भाट से हुई। वे दोनों काफी समय से उस उद्यान की देखभाल कर रहे थे। उन्हें आशा थी कि उनके राजा कभी उनकी सुध लेंगे तथा उनकी विपन्नता को दूर करेंगे। विक्रम पसीज गए। उन्होंने सन्यासी वाली माला भाट को तथा छड़ी ब्राह्मण को दे दी। ऐसी अमूल्य चीजें पाकर दोनों धन्य हुए और विक्रम का गुणगान करते हुए चले गए।

विक्रम राज दरबार में पहुँचकर अपने कार्य में संलग्न हो गए। छ: मास की अवधि पूरी हुई तो पुरुषार्थ तथा भाग्य अपने फैसले के लिए उनके पास आए। विक्रम ने उन्हें बताया कि वे एक-दूसरे के पूरक हैं। उन्हें छड़ी और माला का उदाहरण याद आया। जो छड़ी और माला उन्हें भाग्य से सन्यासी से प्राप्त हुई थीं उन्हें ब्राह्मण और भाट ने पुरुषार्थ से प्राप्त किया। पुरुषार्थ और भाग्य पूरी तरह संतुष्ट होकर वहाँ से चले गए।

Tuesday, August 02, 2022

दूसरी पुतली चित्रलेखा ~ राजा विक्रम और बेताल की कथा!

 दूसरी पुतली चित्रलेखा की कथा इस प्रकार है-


एक दिन राजा विक्रमादित्य शिकार खेलते-खेलते एक ऊँचे पहाड़ पर आए। वहाँ उन्होंने देखा एक साधु तपस्या कर रहा है। साधु की तपस्या में विघ्न नहीं पड़े यह सोचकर वे उसे श्रद्धापूर्वक प्रणाम करके लौटने लगे। उनके मुड़ते ही साधु ने आवाज़ दी और उन्हें रुकने को कहा। विक्रमादित्य रुक गए और साधु ने उनसे प्रसन्न होकर उन्हें एक फल दिया। उसने कहा- "जो भी इस फल को खाएगा तेजस्वी और यशस्वी पुत्र प्राप्त करेगा। फल प्राप्त कर जब वे लौट रहे थे, तो उनकी नज़र एक तेज़ी से दौड़ती महिला पर पड़ी। दौड़ते-दौड़ते एक कुँए के पास आई और छलांग लगाने को उद्यत हुई। विक्रम ने उसे थाम लिया और इस प्रकार आत्महत्या करने का कारण जानना चाहा। महिला ने बताया कि उसकी कई लड़कियाँ हैं पर पुत्र एक भी नहीं। चूँकि हर बार लड़की ही जन्म लेती है, इसलिए उसका पति उससे नाराज है और गाली-गलौज तथा मार-पीट करता है। वह इस दुर्दशा से तंग होकर आत्महत्या करने जा रही थी। राजा विक्रमादित्य ने साधु वाला फल उसे दे दिया तथा आश्वासन दिया कि अगर उसका पति फल खाएगा, तो इस बार उसे पुत्र ही होगा। कुछ दिन बीत गए।

एक दिन एक ब्राह्मण विक्रम के पास आया और उसने वही फल उसे भेट किया। विक्रम स्त्री की चरित्रहीनता से बहुत दुखी हुए। ब्राह्मण को विदा करने के बाद वे फल लेकर अपनी पत्नी के पास आए और उसे वह फल दे दिया। विक्रम की पत्नी भी चरित्रहीन थी और नगर के कोतवाल से प्रेम करती थी। उसने वह फल नगर कोतवाल को दिया ताकि उसके घर यशस्वी पुत्र जन्म ले। नगर कोतवाल एक वेश्या के प्रेम में पागल था और उसने वह फल उस वेश्या को दे दिया। वेश्या ने सोचा कि वेश्या का पुत्र लाख यशस्वी हो तो भी उसे सामाजिक प्रतिष्ठा नहीं प्राप्त हो सकती है। उसने काफी सोचने के बाद यह निष्कर्ष निकाला कि इस फल को खाने का असली अधिकारी राजा विक्रमादित्य ही है। उसका पुत्र उसी की तरह योग्य और सामर्थ्यवान होगा तो प्रजा की देख-रेख अच्छी तरहा होगी और सभी खुश रहेगे। यही सोचकर उसने विक्रमादित्य को वह फल भेंट कर दिया। फल को देखकर विक्रमादित्य ठगे-से रह गए। उन्होंने पड़ताल कराई तो नगर कोतवाल और रानी के अवैध सम्बन्ध का पता चल गया। वे इतने दुखी और खिन्न हो गए कि राज्य को ज्यों का त्यों छोड़कर वन चले गए और कठिन तपस्या करने लगे।

चूँकि विक्रमादित्य देवताओं और मनुष्यों को समान रुप से प्रिय थे, देवराज इन्द्र ने उनकी अनुपस्थिति में राज्य की रक्षा के लिए एक शक्तिशाली देव भेज दिया। वह देव नृपविहीन राज्य की बड़ी मुस्तैदी से रक्षा तथा पहरेदारी करने लगा। कुछ दिनों के बाद विक्रमादित्य का मन अपनी प्रजा को देखने को करने लगा। जब उन्होंने अपने राज्य में प्रवेश करने की चेष्टा की तो देव सामने आ खड़ा हुआ। उसे अपनी वास्तविक पहचान देने के लिए विक्रम ने उससे युद्ध किया और पराजित किया। पराजित देव मान गया कि उसे हराने वाले विक्रमादित्य ही हैं और उसने उन्हें बताया कि उनका एक पिछले जन्म का शत्रु यहाँ आ पहुँचा है और सिद्धि कर रहा है। वह उन्हें खत्म करने का हर सम्भव प्रयास करेगा।

यदि विक्रम ने उसका वध कर दिया तो लम्बे समय तक वे निर्विघ्न राज्य करेंगे। योगी के बारे में सब कुछ बताकर उस देव ने राजा से अनुमति ली और चला गया। विक्रम की चरित्रहीन पत्नी तब तक ग्लानि से विष खाकर मर चुकी थी। विक्रम ने आकर अपना राजपाट सम्भाल लिया और राज्य का सभी काम सुचारुपूर्वक चलने लगा। कुछ दिनों के बाद उनके दरबार में वह योगी आ पहुँचा। उसने विक्रम को एक ऐसा फल दिया जिसे काटने पर एक कीमती लाल निकला। पारितोषिक के बदले उसने विक्रम से उनकी सहायता की कामना की। विक्रम सहर्ष तैयार हो गए और उसके साथ चल पड़े। वे दोनों श्मशान पहुँचे तो योगी ने बताया कि एक पेड़ पर बेताल लटक रहा है और एक सिद्धि के लिए उसे बेताल की आवश्यकता है। उसने विक्रम से अनुरोध किया कि वे बेताल को उतार कर उसके पास ले आएँ।

विक्रम उस पेड़ से बेताल को उतार कर कंधे पर लादकर लाने की कोशिश करने लगे। बेताल बार-बार उनकी असावधानी का फायदा उठा कर उड़ जाता और पेड़ पर लटक जाता। ऐसा चौबीस बार हुआ। हर बार बेताल रास्ते में विक्रम को एक कहानी सुनाता। पच्चीसवीं बार बेताल ने विक्रम को बताया कि जिस योगी ने उसे लाने भेजा है वह दुष्ट और धोखेबाज़ है। उसकी तांत्रिक सिद्धी की आज समाप्ति है तथा आज वह विक्रम की बलि दे देगा जब विक्रम देवी के सामने सर झुकाएगा। राजा की बलि से ही उसकी सिद्धि पूरी हो सकती है।

विक्रम को तुरन्त इन्द्र के देव की चेतावनी याद आई। उन्होंने बेताल को धन्यवाद दिया और उसे लादकर योगी के पास आए। योगी उसे देखकर अत्यन्त हर्षित हुआ और विक्रम से देवी के चरणों में सर झुकाने को कहा। विक्रम ने योगी को सर झुकाकर सर झुकाने की विधि बतलाने को कहा। ज्योंहि योगी ने अपना सर देवी चरणों में झुकाया कि विक्रम ने तलवार से उसकी गर्दन काट दी। देवी बलि पाकर प्रसन्न हुईं और उन्होंने विक्रम को दो बेताल सेवक दिए। उन्होंने कहा कि स्मरण करते ही ये दोनों बेताल विक्रम की सेवा में उपस्थित हो जाएँगे। विक्रम देवी का आशिष पाकर आनन्दपूर्वक वापस महल लौटे।


Monday, July 25, 2022

सिंहासन बत्तीसी-1--पहली पुतली रत्नमंजरी~राजा विक्रम के जन्म तथा सिंहासन प्राप्ति की कथा!

 पहली पुतली रत्नमंजरी राजा विक्रम के जन्म तथा इस सिंहासन प्राप्ति की कथा बताती है। वह इस प्रकार है:


आर्यावर्त में एक राज्य था जिसका नाम था अम्बावती। वहाँ के राजा गंधर्वसेन ने चारों वर्णों की स्त्रीयों से चार विवाह किये थे। ब्राह्मणी के पुत्र का नाम ब्रह्मवीत था। क्षत्राणी के तीन पुत्र हुए- शंख, विक्रम तथा भर्तृहरि। वैश्य पत्नी ने चन्द्र नामक पुत्र को जन्म दिया तथा शूद्र पत्नी ने धन्वन्तरि नामक पुत्र को। ब्रह्मणीत को गंधर्वसेन ने अपना दीवान बनाया, पर वह अपनी जिम्मेवारी अच्छी तरह नहीं निभा सका और राज्य से पलायन कर गया। कुछ समय भटकने के बाद धारानगरी में ऊँचा ओहदा प्राप्त किया तथा एक दिन राजा का वध करके ख़ुद राजा बन गया। काफी दिनों के बाद उसने उज्जैन लौटने का विचार किया, लेकिन उज्जैन आते ही उसकी मृत्यु हो गई।

क्षत्राणी के बड़े पुत्र शंख को शंका हुई कि उसके पिता विक्रम को योग्य समझकर उसे अपना उत्तराधिकारी घोषित कर सकते हैं और उसने एक दिन सोए हुए पिता का वध करके स्वयं को राजा घोषित कर दिया। हत्या का समाचार दावानल की तरह फैला और उसके सभी भाई प्राण रक्षा के लिए भाग निकले। विक्रम को छोड़कर बाकी सभी भाइयों का पता उसे चल गया और वे सभी मार डाले गए। बहुत प्रयास के बाद शंख को पता चला कि घने जंगल में सरोवर के बगल में एक कुटिया में विक्रम रह रहा है तथा कंदमूल खाकर घनघोर तपस्या में रत है। वह उसे मारने की योजना बनाने लगा और एक तांत्रिक को उसने अपने षडयंत्र में शामिल कर लिया।

योजनानुसार तांत्रिक विक्रम को भगवती आराधना के लिए राज़ी करता तथा भगवती के आगे विक्रम के सर झुकाते ही शंख तलवार से वार करके उसकी गर्दन काट डालता। मगर विक्रम ने खतरे को भाँप लिया और तांत्रिक को सर झुकाने की विधि दिखाने को कहा। शंख मन्दिर में छिपा हुआ था। उसने विक्रम के धोखे में तांत्रिक की हत्या कर दी। विक्रम ने झपट कर शंख की तलवार छीन कर उसका सर धड़ से अलग कर दिया। शंख की मृत्यु के बाद उसका राज्यारोहण हुआ। एक दिन शिकार के लिए विक्रम जंगल गए। मृग का पीछा करते-करते सबसे बिछुड़कर बहुत दूर चले आए। उन्हें एक महल दिखा और पास आकर पता चला कि वह महल तूतवरण का है जो कि राजा बाहुबल का दीवान है। तूतवरण ने बात ही बात में कहा कि विक्रम बड़े ही यशस्वी राजा बन सकते हैं, यदि राजा बाहुबल उनका राजतिलक करें। और उसने यह भी बताया कि भगवान शिव द्वारा प्रदत्त अपना स्वर्ण सिंहासन अगर बाहुबल विक्रम को दे दें तो विक्रम चक्रवर्ती सम्राट बन जांएगे। बाहुबल ने विक्रम का न केवल राजतिलक किया, बल्कि खुशी-खुशी उन्हें स्वर्ण सिंहासन भी भेंट कर दिया। कालांतर में विक्रमादित्य चक्रवर्ती सम्राट बन गए और उनकी कीर्तिपताका सर्वत्र लहरा उठी।

Thursday, March 03, 2022

Motivational Speech

 दोस्तों मनुष्य की जिंदगी में सुख और दुख हमेशा साथ साथ चलते हैं व्यक्ति, को सभी तरह के समय के लिए तैयार रहना चाहिए लेकिन दुख के समय में कई लोग बुरी तरह टूट जाते हैं, और आगे बढ़ने की उम्मीद छोड़ देते हैं। दोस्तों जब आप संघर्ष कर रहे होते हैं तो रास्ते मे बहुत सारे उतार चढ़ाव आते हैं। लेकिन इन उतार से जो व्यक्ति डर जाता है वह कभी आगे नही बढ़ पाता और जो ऐसे समय में धैर्य बनाए रखते हुए आगे बढ़ता रहता है वह जीवन में कभी असफल नही हो सकता।


निराशा एक ऐसी बीमारी है कि एक बार कोई इसकी चपेट में आ जाए तो उससे बाहर निकलना बहुत मुश्किल हो जाता है। अधिकांश लोग नए काम की शुरुआत बड़े उत्साह के साथ करते हैं। लेकिन अगर आपके द्वारा निर्धारित समय सीमा के भीतर सफलता नहीं मिलती है, तो कुछ समय बाद सारा उत्साह खत्म होने लगता है। इसका सबसे बड़ा कारण उदासीनता यानी अपने आप में प्रेरणा की कमी है। काम चाहे छोटा हो या बड़ा उसे अच्छे से पूरा करने के लिए काफी मोटिवेशन की जरूरत होती है। आजकल की इसी समस्या को ध्यान में रखते हुए आज हम कुछ  kahani humari jubaani लेकर आए हैं जिनके द्वारा आप किसी व्यक्ति अथवा छात्र के जीवन में उजाला ला सकते हैं।


इंतज़ार करने वालों को उतना ही मिलता है जितना कोशिश करने वाले छोड़ देते हैं

सफलता उन्हीं को मिलती है, जिनके जीवन का एक लक्ष्य होता है और वे अपने लक्ष्य के प्रति ईमानदार होते हैं। और अपने लक्ष्य को हासिल करने के लिए सच्चा दृढ़ संकल्प लेते हैं और इसके लिए वे लगातार प्रयास करते रहते है।


किसी भी सफलता की शुरुआत कोशिश करने से ही होती है। इसी बात पर एक बार चन्द्रगुप्त ने चाणक्य से पूछा “अगर किस्मत पहले लिखी जा चूकी है तो कोशिश करने से क्या मिलेगा” इस पर चाणक्य ने जवाब दिया “क्या पता किस्मत में लिखा हो कोशिश करने से ही मिलेगा” इसीलिए हम भी कहते है सफल होना है तो कोशिश तो करनी ही पड़ेगी

अक्सर कोई भी काम शुरू करने से पहले लोग उसके फायदे, नुकसान, परिणाम, आदि के बारे में सोचने लगते हैं और जब वे ऐसा करते हैं तो हम एक कदम आगे बढ़ने से पहले ही खुद को पीछे धकेल देते हैं क्योंकि आपको कुछ नया मिलता है। अगर आप काम पर जाते हैं तो आपको जरूर लगेगा कि आप यह नहीं कर सकते या ऐसा करना आपके बस की बात नहीं है और जब आप लोगों के सामने इस पर चर्चा करते हैं तो लोग आपका मजाक उड़ाने लगते हैं।


हमें इन सब बातों को नजरअंदाज कर अपनी मंजिल की ओर बढ़ना है। इसलिए सभी छात्रों को भी अपने जीवन में एक लक्ष्य निर्धारित करना चाहिए और अपनी पढ़ाई के प्रति गंभीर होना चाहिए। तभी वे अपने जीवन में सफलता प्राप्त कर सकते हैं। जो छात्र पूरी साल मेहनत, लगन और ईमानदारी से पढ़ाई करते हैं। वो ही क्लास में टॉप करते हैं।


ज़िन्दगी की कठनाइयों से भाग जाना आसान होता है,
जिंदगी में हर पहलू इम्तेहान होता है,
डरने वालो को नही मिलता कुछ ज़िन्दगी में,
लड़ने वालों के कदमो में जहांन होता है.

“मैदान से हारा हुआ इंसान तो फिर से जीत सकता है लेकिन मन से हारा हुआ इंसान कभी नहीं जीत सकता इसलिए मन से कभी हार मत मानना”

वहीं जिन छात्रों को पढ़ाई करने से डर लगता है अथवा यह सोचते हैं कि वे फेल हो जाएंगे और इसलिए मेहनत नहीं करते तो उनका ऐसा सोचना बिल्कुल गलत है क्योंकि किसी काम को करने के लिए प्रयास करने और विश्वास रखने की जरूरत होती है। इसलिए सभी छात्रों को एक ध्येय बनाना चाहिए और उसे पाने के लिए बिना रुके तब तक प्रयास करते रहना चाहिए जब तक की उसे पा नहीं लें।

हर व्यक्ति के अंदर पॉज़िटिव एनर्जी भरी होती है जैसे कोल्ड्रींक की बॉटल के अंदर कोल्डद्रिंक भरी होती है मगर आप जब तक ढक्कन खॉलोगे नही तब तक वो बहार नही आ पाती। इसी तरह जब तक आप अपने अंदर की एनर्जी को बाहर नही आने दोगे तब तक सफल नही हो सकते ह्मे।

कुछ भी करने से पहले यही डर लगता है की लोग क्या कहेंगे या हम सफल होंगे या नही अगर व्यक्ति सफल और असफल होने का डर मन से निकाल दे तो उससे आगे बढ़ने से कोई रोक नही सकता। Failure के बिना Success की कहानी अधूरी होती है किसी भी महान व्यक्ति की success journey को देखलो बिना failure कोई भी आगे नही बढ़ा है। इसीलिए कहा जाता है कि

“failure is not different from success, failure is a part of success journey”

इसीलिए बिना किसी परिणाम की परवाह किए हमे अपना कार्य करते रहने चाहिए और अपने लक्ष्य को दृढ़ रखान चाहिए। अंतः सफलता प्राप्त होके ही रहेगी| इसी के साथ मैं अपनी वाणी को विराम देती हूँ इन शब्दों के साथ

कौन कहता है कि आसमां में सुराख नहीं हो सकता, एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारों

Saturday, January 23, 2021

एक नई कहानी नए साल में

  एक बच्चा अपनी माँ के साथ एक दुकान पर शॉपिंग करने गया तो दुकानदार ने उसकी मासूमियत देखकर उसको सारी टॉफियों के डिब्बे खोलकर कहा-: "लो बेटा टॉफियाँ ले लो...!!!"

 

पर उस बच्चे ने भी बड़े प्यार से उन्हें मना कर दिया. उसके बावजूद उस दुकानदार ने और उसकी माँ ने भी उसे बहुत कहा पर वो मना करता रहा. हारकर उस दुकानदार ने खुद अपने हाथ से टॉफियाँ निकाल कर उसको दीं तो उसने ले लीं और अपनी जेब में डाल ली.

 

वापस आते हुऐ उसकी माँ ने पूछा कि "जब अंकल तुम्हारे सामने डिब्बा खोल कर टाँफी दे रहे थे , तब तुमने नही ली और जब उन्होंने अपने हाथों से दीं तो ले ली..!! ऐसा क्यों..??"

 

तब उस बच्चे ने बहुत खूबसूरत प्यारा जवाब दिया -: "माँ मेरे हाथ छोटे-छोटे हैं... अगर मैं टॉफियाँ लेता तो दो तीन टाँफियाँ ही आती जबकि अंकल के हाथ बड़े हैं इसलिये ज्यादा टॉफियाँ मिल गईं..."

 

बिल्कुल इसी तरह जब भगवान हमें देता है, तो वो अपनी मर्जी से देता है और वो हमारी सोच से परे होता है, हमें हमेशा उसकी मर्जी में खुश रहना चाहिये....!!!

 

क्या पता..??

 

वो किसी दिन हमें पूरा समंदर देना चाहता हो और हम हाथ में चम्मच लेकर खड़े हों...



छठी पुतली रविभामा ~ विक्रमादित्य की परीक्षा!

  छठी पुतली रविभामा ने जो कथा सुनाई वह इस प्रकार है: एक दिन विक्रमादित्य नदी के तट पर बने हुए अपने महल से प्राकृतिक सौन्दर्य को निहार रहे थे...